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एक पीड़ादायक कहानी, जो सिर्फ एक मौत नहीं, बल्कि व्यवस्था की नाकामी की गवाही है!
Sahibganj: सोमवार की रात लदौनी गांव की सड़कों पर एक खामोश, थकी और डरी हुई टोली धीरे-धीरे खाट उठाए चल रही थी। खाट पर लेटी थी 16 वर्षीय बदरी पहाड़िन, ज़िंदगी से जूझती एक पहाड़िया किशोरी, जिसने शायद न कभी 108 एंबुलेंस की आवाज़ सुनी थी, न सरकारी योजनाओं की भाषा समझी थी।
उसकी मां दरमी पहाड़िन की आँखों में डर था, पर कदमों में हिम्मत। बेटी ने गलती से कोई जहरीला पदार्थ खा लिया था। जब हालत बिगड़ने लगी, तब तक गांव में कोई वाहन नहीं मिला। अंधेरे और पहाड़ी रास्तों में, मोबाइल नेटवर्क की उम्मीद छोड़ चुके परिजनों ने वही किया जो सदियों से आदिवासी इलाके में होता आया है, खाट को स्ट्रेचर बना, बेटी को अस्पताल ले जाने का संघर्ष शुरू किया।
घंटों पैदल चले… पर मौत इंतज़ार नहीं करती
रात करीब 10 बजे वे सदर अस्पताल पहुंचे, जहां इलाज शुरू तो हुआ, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मंगलवार की शाम चार बजे बदरी ने आख़िरी साँस ली।
माँ की सिसकियों से अस्पताल की दीवारें भीगीं, पर सिस्टम खामोश रहा
बदरी के इलाज के दौरान भी सरकारी सेवाओं की खामियाँ उजागर होती रहीं। न वक्त पर एंबुलेंस पहुंची, न ही पीड़ित परिवार को पालकी योजना जैसी किसी मदद की जानकारी थी। यहां तक कि मौत के बाद भी एंबुलेंस नसीब नहीं हुई। मां-बाप फिर उसी खाट पर बेटी का शव लेकर लौटे। इस बार बोझ सिर्फ शरीर का नहीं, किसी अपने को खोने और टूटे सपनों का भी था।
मौत के बाद भी नहीं मिला एंबुलेंस,शव को परिजन खाट पर रखकर 10 किलोमीटर तक पैदल चले।
झारखंड के साहिबगंज में बीमार किशोरी को इलाज के लिए परिजन खाट पर लेकर पैदल सदर अस्पताल पहुंचे।परिजनों का आरोप था कि मौत के बाद भी शव ले जाने को अस्पताल से नहीं मिली एंबुलेंस परिजन शव को खाट से 10… pic.twitter.com/jw3AIDy8ah— Sohan singh (@sohansingh05) July 23, 2025
गांव वालों में ग़ुस्सा है और सवाल भी हैं कि जब 108 एंबुलेंस सेवा है, तो उपलब्ध क्यों नहीं? पालकी योजना की जानकारी पहाड़ी गांवों तक क्यों नहीं पहुंचती? प्रशासन को आदिम जनजाति पहाड़िया समुदाय की तकलीफें कब दिखेंगी?
सीएस डॉ. रामदेव पासवान का कहना है कि “यदि वाहन के जाने लायक रास्ता हो, तो एंबुलेंस मिलनी चाहिए थी। जांच की जाएगी।” पर सवाल है कि क्या इस जांच से बदरी जैसी और बेटियों की जान बच सकेगी?
यह कोई पहली कहानी नहीं है… लेकिन हर बार आख़िरी क्यों साबित होती है? बदरी पहाड़िन अब नहीं रही, पर उसकी खामोश चीखें एक गूंज बनकर रह गई हैं, जो शायद सिस्टम को झकझोर दे। पहाड़ से उठती हर खाट, किसी न किसी बदरी की आख़िरी उम्मीद होती है। क्या हम अब भी चुप रहेंगे?
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