Emergency: “लोकतंत्र न तो स्थायी होता है, न ही अजेय। वह जनता, विपक्ष और सत्ता तीनों की जिम्मेदारियों से चलता है।”
25 जून 1975 को देश में लगा आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का एक निर्णायक मोड़ था। यह एक ऐसा समय था जब संवैधानिक मूल्यों की परीक्षा हुई, संस्थाओं की भूमिका पर सवाल उठे, और नागरिक अधिकारों की परिभाषा तक बदल गई। जहां एक पक्ष इसे लोकतंत्र पर हमला मानता है, वहीं दूसरा पक्ष इसे राष्ट्रहित में लिया गया एक कठिन लेकिन आवश्यक निर्णय कहता है।
आपातकाल: क्या था तत्कालीन परिदृश्य?
1970 के दशक का मध्यकाल भारत के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण था। देश मंदी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा था। गुजरात और बिहार में छात्रों द्वारा संचालित बड़े जनांदोलन शुरू हो चुके थे, जिन्हें जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दिया गया। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अमान्य करार दिया। कोर्ट के इस फैसले के बाद राजनीतिक संकट गहराया, और इसी बीच सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू कर दिया।
आम जनता पर कहर
जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया। लाखों गरीब और कमजोर वर्ग के पुरुषों को मजबूर किया गया। इसमें भय, लालच और कई बार पुलिसिया ज़बरदस्ती का सहारा लिया गया। दिल्ली की तुर्कमान गेट जैसी बस्तियों में अवैध निर्माण हटाने के नाम पर गरीबों के घरों को ढहा दिया गया। विरोध करने वालों पर लाठियां बरसीं, गोलियां चलीं।
प्रशासन बना कठपुतली
राष्ट्रपति से लेकर जिला प्रशासन तक सब कुछ एक व्यक्ति के इशारों पर चलने लगा। संसद मूक बन गई, संसद में बहसें खत्म हो गईं। कोई विपक्ष नहीं, कोई सवाल नहीं। यह लोकतंत्र नहीं, स्पष्ट तानाशाही थी।
विपक्ष और आलोचकों ने आपातकाल को माना अधिकारों का दमन और निरंकुशता
विपक्षी दलों, पत्रकारों और नागरिक समाज का मानना था कि आपातकाल का असली मकसद राजनीतिक सत्ता को बनाए रखना था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक, मीडिया सेंसरशिप, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, और न्यायपालिका पर दबाव, इन सभी चीज़ों ने लोकतंत्र की आत्मा को आहत किया। जयप्रकाश नारायण से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मोरारजी देसाई जैसे नेताओं को जेल में डाल दिया गया। लाखों आम नागरिक भी प्रभावित हुए, विशेष रूप से संजय गांधी के नसबंदी अभियान के दौरान।
समर्थकों ने आपातकाल को बताया अनुशासन और स्थिरता के लिए कठोर कदम
कांग्रेस और इंदिरा गांधी समर्थकों का तर्क था कि देश अराजकता की कगार पर था, और लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाने के लिए कठोर निर्णय आवश्यक हो गया था। कानून-व्यवस्था बनाए रखना, प्रशासनिक मशीनरी को सुदृढ़ करना और औद्योगिक उत्पादन तथा योजनागत विकास को गति देना, इन सबके लिए ‘अनुशासन पर्व’ आवश्यक बताया गया। तत्कालीन सरकार के अनुसार, आपातकाल के दौरान रेलें समय पर चलने लगीं, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण हुआ, और कुछ क्षेत्रों में विकास कार्यों को नई गति मिली।
जनता का जवाब: लोकतांत्रिक सुधार की शुरुआत
1977 में हुए आम चुनाव में देश की जनता ने मतदान के माध्यम से निर्णय दिया। कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी के नेतृत्व में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। यह परिवर्तन भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता और आत्मशक्ति का प्रतीक था। हालांकि, जनता पार्टी की सरकार भी लंबे समय तक टिक नहीं सकी। आंतरिक मतभेद, अनुभव की कमी और वैचारिक असमानता ने उसकी स्थिरता को प्रभावित किया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि विपक्ष के लिए आलोचना जितनी आसान होती है, सत्ता चलाना उतना ही चुनौतीपूर्ण।
आपातकाल: दोनों पक्षों के लिए सबक
सत्ता पक्ष के लिए यह सबक है कि लोकतंत्र में आलोचना से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि उसे सुनना और स्वीकारना चाहिए। विपक्ष के लिए यह सीख है कि आंदोलन और संघर्ष के बाद सत्ता में आने पर जनता की अपेक्षाएं कई गुना बढ़ जाती हैं, ऐसे में जवाबदेही सर्वोपरि हो जाती है।
इतिहास की पुनरावृत्ति न हो
आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा अध्याय है, जिसे याद रखना और उससे सीख लेना आवश्यक है। न तो किसी सत्ता को निरंकुश बनने की छूट दी जानी चाहिए, और न ही लोकतंत्र की रक्षा केवल नारों तक सीमित रहनी चाहिए। संविधान, संस्थाएं, मीडिया और नागरिक, सभी को अपनी भूमिका निभानी होगी।
लोकतंत्र न तो केवल चुनाव से चलता है, और न ही केवल बहुमत से; वह जवाबदेही, संतुलन और संवैधानिक मर्यादाओं से चलता है।
ये भी पढ़ें: पटना-दिल्ली Air India फ्लाइट में तेज झटके से मचा हड़कंप, लैंडिंग से पहले टला बड़ा हादसा
